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७ मई, ११५८
''विकास करती हुई प्रकृतिकी सबसे पहली भूमिकाओंमे हमें उस- की निश्चेतनाके मूक रहस्योंसे ही पाला पड़ता है । उसके कामोंमें कोई सार्थकता या उद्देश्य नहीं प्रकट होता । वह जिस पहले रूपको लेकर ही तल्लीन थी -- जो हमेशाके लिये उसका एकमात्र व्यापार मालूम होता है -- उसे छोड़कर किसी और तत्वका संकेत भी नहीं मिलता । उसके आदिम कार्यमें केवल 'जड़-तत्व' ही एकमात्र मूक और नग्न वैश्व सद्वस्तु प्रतीत होता है । यदि सृष्टिका कोई सचेतन 'साक्षी' होता, जिसे कुछ बताया न जाता, तो उसे असल देखनेवाली बहुत बढ़ी खाईमेंसे एक 'ऊर्जा' प्रकट होती हुई दिखायी देती जो 'जडू-तत्त्व', जड़-जगत् और जड़-पदार्थोकी सृष्टि करनेमें लगी होती, जो निश्चेतनाकी अनंतताको किसी असीम विश्वकी योजनामें पा असंख्य विश्वोंके समुदायमें संगठित करनेमें लगो होती, जो किसी निश्चित लक्ष्य दा सीमाके बिना उसके चारों ओर देशमें फैल होते । बह साक्षी देखता कि नीहारिकाओं, नक्षत्र-समूहों, सूर्य और ग्रहों सृष्टि केवल अपने लिये है, उसका कोई अर्थ नहीं, बह कारण या उद्देश्य-विहीन है । उसे लगता कि यह एक बहुत ही बड़ी मशीन है जिसका कोई उपयोग नहीं, एक महान् किंतु निरर्थक गति, एक युगोंतक चलनेवाला दृश्य है जिसे देखनेवाला कोई नहीं, एक वैश्व प्रासाद है जिसमें रहनेवाला कोई नहीं; क्योंकि उसे इसके अंदर निवास करनेवाली 'आत्मा' का कोई चिह्न न दिखायी देता, कोई ऐसी सत्ता न दिखायी देती जिसके आनंद- के लिये यह बनाया गया हो । इस प्रकारकी सृष्टि किसी निश्चेतन 'ऊर्जा'का परिणाम या किसी अतिचेतन उदासीन निरपेक्ष पर प्रतिबिंबित रूपोंका माया चल-चित्र, उनका छाया नाटक या कठपुतलीका तमाशा ही हो सकता है । 'जड-पदार्थका इस अपार और अनंत प्रदर्शनमें उसे अंतरात्माका कहीं कोई साक्ष्य न मिलता और न ही 'मन' या 'प्राणका कोई चिह्न दिखायी देता । उसे यह संभव ही न लगता, बल्कि कल्पनामें भी न आता कि इस हमेशाके लिये निष्प्राण और सबेदनहीन मरू जगत्में कभी प्राणकी बाढ़ आ जायगी, किसी गुह्य और गणनातीत, सजीव
२९७ प्रकृतिका
और सचेतन वस्तुका बाहरी तलकी ओर रास्ता खोजता हुआ पहला स्पंदन होगा ।', ('लाइफ डिवाइन', पृ० ८४८-४९)
मधुर मां, यह वाक्य मेरी समझमें नहीं आया : ''विकास करती हुई प्रकृतिकी स्वसे पहली भूमिकाओंमे हमें उसकी निश्चेतनाके मूक रहस्योंसे ही पाला पड़ता है ।'' उसका रहस्य क्या है, मधुर मां?
प्रकृतिका अभिप्राय?... शुरूसे श्रीअरविन्दने कहा है कि गहराईमें जड़ तत्त्वके अंतस्तलम भागवत हु है । अरे सारा ०थव क्रमविकास सृष्टिको अपने म्लकी ओर लौटनेकी तैयारीके लिये हुआ है, उस भागवत उपस्थितिकी ओर लौटनेके लिये जो हर वस्तुके केंद्रमें है -- यही है प्रकृतिका अभिप्राय ।
यह विश्व 'परम' का स्थल रूप है, मानों अपने-आपको देखनेके लिये, जीनेके लिये, अपने-आपको जाननेके लिये उसने अपने बाहर स्थूल रूप धारण किया हो और संभूतिमें उसे अभिव्यक्त करनेके लिये एक जीवन और चेतना हो जो उसे अपने मूलके रूपमें पहचाननेके योग्य हो और सचेतन रूपमें उसके साथ एक हों जाय । विश्वके अस्तित्वका और कोई उद्देश्य नहीं । पृथ्वी वैश्व जीवनका एक तरहका प्रतीकात्मक स्फटिकीकरण है, छोटा संस्करण है, संकेंद्रण है, ताकि क्रमविकासका कार्य और उसका अनुसरण अपेक्षाकृत आसान हो जाय । और यदि हम पृथ्वीका इतिहास देखें तो समझ सकेंगे कि विश्व क्यों रचा गया है । सनातन 'संभूतिमें परम ही अपने प्रतिसनान हो रहा है; और लक्ष्य है 'अभिव्यक्त विश्व'- मे सृष्टिका स्रष्टासे मिलन, एक सचेतन स्वेच्छापूर्ण और स्वतंत्र मिलन ।
यही है प्रकृतिका रहस्य । प्रकृति कार्यकारिणि 'शक्ति' है, यही है जो कार्य करती है ।
और यह इस सृष्टिको लेती है जो प्रकट रूपमें बिलकुल अचेतन है पर जिसके भीतर 'परम चेतना' और एकमात्र 'सद्वस्तु' है, और काम करती है ताकि यह सब विकसित हों जाय, आत्म-सचेतन हो जाय और अपनेको पूरी तरह चरितार्थ कर ले । पर वह यह शुरूसे नहीं दिखाती । यह धीरे-धीरे विकसित होती है, और इसीलिये प्रारंभमें यह ऐसा रहस्य होती है जो अंतकी तरफ खुलेगा । और क्रमविकासमें मनुष्य अब एक काफी ऊंची अवस्थातक पहुंच गया है और अब यह रहस्य उद्घाटित किया
२९८ जा सकता है और जो कुछ बाहरी अचेतक्तामें किया जाता था वह अब सचेतनतासे, स्वेच्छासे किया जा सकता है और इसीलिये कहीं अधिक शीध्ग्तासे और सिद्धिके आनन्दके साथ किया जा सकता है ।
मनुष्यमें अब मी देखा जा सकता है कि आध्यात्मिक सत्य विकसित हो रहा है और पूर्णतया एवं मुक्त भावसे अभिव्यक्त होनेवाला है । पहले, पशु और पौधेमें यह... । इसे देखनेके लिये बहुत स्पष्ट दृष्टिकी जरूरत थी, लेकिन मनुष्य तो स्वयं इस आध्यात्मिक सत्यसे अवगत है, कम-से-कम अपने मानव जीवनके उच्चतर भागमें तो है ही । मनुष्य यह जानने लगा है कि 'परम मूल' उससे क्या चाहता है और वह उसकी कार्यान्वितिमें सहयोग दे रहा है ।
प्रकृति चाहती है कि सृष्टि स्वयंको स्थूल रूपमें अभिव्यक्त 'स्रष्टा' अनु- भव करने लगे, अर्थात्, 'सृष्टि' और 'स्रष्टा'में कोई भेद नहीं है और लक्ष्य है सचेतन और संसिद्ध मिलन । यही है प्रकृतिका रहस्य ।
मां, यहां श्रीअरविन्द लिखते है : ''उसकी निश्चेतनाका मूक रहस्य'' । उसकी ''निश्चेतना'' क्यों?
किसकी निश्चेतना?
प्रकृतिकी ।
नहीं, प्रकृति वास्तवमें अचेतन नहीं है, पर उसका बाह्य कप अचेतन है । वह शुरू हुई 'निश्चेतना'से लेकिन निश्चेतनाकी गहराईमें चेतना थी, और यही चेतना धीरे-धीरे विकसित होती है ।' उदाहरणार्थ, खनिज पदार्थ, पत्थर, मिट्टी, धातुएं, पानी, पवन, सब काफी अचेतन दीखते हैं यद्यपि यदि कोई ध्यानसे देखें... । और अब विज्ञानको पता लग रहा है कि यह केवल बाह्य रूप है, यह सब है संकेन्द्रित ऊर्जा, और स्वाभाविक है कि सचेतन शक्तिने यह सब पैदा किया है । लेकिन ऊपरसे, जब हम चट्टान- को देखते है तो तुरत यह नहीं सोचते कि यह सचेतन है, यह सचेतन होने- का आभास नहीं देती, यह बिलकुल निश्चेतन दिखती है ।
'इस वार्ताके प्रकाशनके समय श्रीमांने निम्न सुधार किया.. ''चेतना विकसित नहीं खाती, चेतनाका आविर्भाव, इसकी अभिव्यक्ति विकसित होती है : यह अपने-आपके अधिकाधिक व्यक्त करती है ।''
२९९ रूप ही निश्चेतन होता है । वह अधिकाधिक सचेतन होता जाता है । खनिज जगत्तकमें कुछ दृश्य मिलते है जो प्रच्छन्न चेतनाको प्रकट करते हैं, जैसे कुछ स्फटिक । यदि तुम देखो कि किस सूक्ष्मता, किस यथार्थता और साख्वजस्यके साथ यह रचा गया है, यदि तुम जरा भी खुले हों तो तुम यह अनुभव करनेको बाध्य होंगे कि इसके पीछे एक चेतना काम कर रही है, यह किसी निश्चेतन संयोगका परिणाम नहीं हो सकता ।
क्या तुमने शैल-स्फटिक देखे हैं?... क्या तुमने कमी नहीं देखा शैल- स्फटिक?
देखे हैं, मां ।
यह सुन्दर होता है, है न? बहुत कलात्मक होता है यह ।
समुद्रकी गतियोंको, पवनकी गतियोंको देख मनुष्य यह अनुभव किये बिना नहीं रह सकता कि उसके पीछे कोई चेतना काम कर रहीं है, बल्कि कई चेतनाएं. काम कर रही हैं । असलमें यह ऐसा ही है । सर्वाधिक उथला रूप ही निश्चेतन होता है ।
( मौन)
वस्तुतः, प्रत्येक सत्तामें क्रम-विकासकी सारी प्रक्रिया दुहरायी जाती है मानों ठयक्ति, जो कुछ अबतक हो चुका है, उस सबमेंसे चकरानेवाले वेग- के साथ गुजर रहा है और अगला कदम लेनेसे पहले निमिष मात्रामें उस सबको फिरसे जी लेना आवश्यक था ।
( मौन)
प्रारंभ... निश्चेतनामें, अंधकारमें, विस्मृतिमें, अचेतनामें महान् यात्रा -- जागरण... और प्रकाशमें पुनरागमन ।
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